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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह विचारों, रणनीतियों और दर्शन का भी महासंग्राम था। इस संघर्ष में दो ऐसे महान व्यक्तित्व सामने आए जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए अपने-अपने ढंग से योगदान दिया—एक ओर थे महात्मा गांधी, जो अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग पर चलकर करोड़ों भारतीयों को आंदोलित कर रहे थे; दूसरी ओर थे भगत सिंह, जो युवाओं के क्रांतिकारी स्वरूप, साहस और बलिदान के प्रतीक बने।
अक्सर इतिहास में यह प्रश्न उठता है कि जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई, तब क्या महात्मा गांधी ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की थी या नहीं? कुछ लोग मानते हैं कि गांधीजी ने पर्याप्त दबाव नहीं डाला, जबकि कई प्रमाण दिखाते हैं कि उन्होंने वायसराय से लेकर जनता तक बार-बार अपील की, लेकिन राजनीतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों ने इन प्रयासों को निष्फल कर दिया।
इस लेख में हम इस पूरे विवाद का गहराई से अध्ययन करेंगे। साथ ही हम देखेंगे कि भगत सिंह का जीवन, उनका करियर, उनकी उपलब्धियाँ और उनकी शहादत ने भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को किस तरह नई ऊर्जा दी।
भगत सिंह का जीवन परिचय
जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान में फैसलाबाद) के बंगा गाँव में हुआ। उनका परिवार देशभक्ति की परंपरा से भरा हुआ था। उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजित सिंह और स्वर्ण सिंह सभी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलनों में सक्रिय थे।
जन्म के समय ही उनका परिवार जेल में था, क्योंकि उनके पिता और चाचा अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलनों में शामिल थे। इसने उनके जीवन की दिशा पहले दिन से ही तय कर दी।
शिक्षा और प्रारंभिक चेतना
भगत सिंह ने प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव और लाहौर के डीएवी स्कूल में प्राप्त की। वे बचपन से ही पढ़ाई में तेज थे और राजनीति में गहरी रुचि रखते थे।
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जब जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) हुआ, तब भगत सिंह केवल 12 साल के थे। उस समय उन्होंने अमृतसर जाकर हत्याकांड की मिट्टी अपने बैग में भरकर घर लाए और उसे "स्वतंत्रता की धरोहर" मानकर रखा।
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वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन (1920-22) से बहुत प्रभावित हुए और अपने स्कूल की किताबें जलाकर सरकारी शिक्षा का बहिष्कार किया।
हालाँकि जब गांधीजी ने चौरी-चौरा कांड (1922) के बाद आंदोलन वापस ले लिया, तो भगत सिंह को गहरा आघात पहुँचा। यहीं से उनमें यह विश्वास पक्का हुआ कि केवल अहिंसा से स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को झकझोरने के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई भी जरूरी है।
युवावस्था और विचारधारा का विकास
भगत सिंह ने किशोरावस्था में ही क्रांतिकारी साहित्य पढ़ना शुरू कर दिया। कार्ल मार्क्स, लेनिन और रूसी क्रांति के विचारों ने उन पर गहरा असर डाला। साथ ही उन्होंने भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन से प्रेरणा ली।
वे कहते थे:
"क्रांति की तलवार विचारों की शान से तेज होती है।"
उनकी सोच केवल ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे एक समाजवादी भारत की कल्पना करते थे जहाँ शोषण न हो और समानता स्थापित हो।
क्रांतिकारी करियर की शुरुआत
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़ाव
1923 में भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ाई करने लगे। वहीं उनकी मुलाकात यशपाल, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों से हुई।
वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़े, जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ना था।
1928 में संगठन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रखा गया। इसका लक्ष्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक क्रांति भी था।
लाला लाजपत राय की मृत्यु और प्रतिशोध
1928 में साइमोन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय पर ब्रिटिश पुलिस ने लाठीचार्ज किया। गंभीर चोटों के कारण लाजपत राय की मृत्यु हो गई।
भगत सिंह इस घटना से बुरी तरह आहत हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि लाजपत राय की मौत का बदला लिया जाएगा।
17 दिसंबर 1928 को उन्होंने राजगुरु और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मिलकर पुलिस अधिकारी जेम्स ए. स्कॉट को मारने की योजना बनाई, लेकिन गलती से जे.पी. सांडर्स की हत्या हो गई। यह घटना पूरे भारत में चर्चा का विषय बन गई।
असेंबली बम कांड (1929)
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधान सभा (Central Legislative Assembly) में बम फेंका।
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यह बम ऐसे स्थान पर फेंका गया जहाँ से किसी की जान न जाए।
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उद्देश्य केवल ब्रिटिश सरकार को चेतावनी देना और जनता तक संदेश पहुँचाना था।
बम फेंकने के बाद उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की बल्कि खुद को गिरफ्तार करवा दिया। उनका उद्देश्य था कि अदालत को अपने विचार प्रकट करने का मंच बनाया जाए।
उन्होंने अदालत में कहा:
"हम बहरों को सुनाना चाहते थे, इसलिए बम फेंका गया।"
जेल जीवन और विचारधारा
भूख हड़ताल
जेल में रहते हुए भगत सिंह और उनके साथियों ने राजनीतिक बंदियों के अधिकारों के लिए लंबी भूख हड़ताल की। वे मांग कर रहे थे कि उन्हें आम अपराधियों की तरह नहीं, बल्कि राजनीतिक कैदी माना जाए।
यह भूख हड़ताल 63 दिन तक चली और इसने पूरे देश का ध्यान खींचा।
लेखन और चिंतन
जेल में रहते हुए भगत सिंह ने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे—
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"मैं नास्तिक क्यों हूँ"
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"क्रांति क्या है?"
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"युवक"
इन लेखों से उनकी गहरी वैचारिक परिपक्वता सामने आई। वे केवल हिंसात्मक कार्रवाई के समर्थक नहीं थे, बल्कि एक दूरदर्शी विचारक और समाजवादी भी थे।
लाहौर षड्यंत्र केस और फांसी
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर लाहौर षड्यंत्र केस चलाया गया। विशेष न्यायाधिकरण ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई।
23 मार्च 1931 को शाम 7 बजे तीनों को फांसी दी गई।
उनकी शहादत से पूरे भारत में आक्रोश और शोक की लहर दौड़ गई।
उस रात को लोगों ने कहा:
"आज भारत ने अपने तीन लाल खो दिए, लेकिन उनके बलिदान से क्रांति की ज्योति और प्रखर हो गई।
गांधीजी का अहिंसा का सिद्धांत
महात्मा गांधी का मानना था कि स्वतंत्रता की लड़ाई का मार्ग केवल अहिंसा और सत्याग्रह है।
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वे कहते थे कि हिंसा से केवल नई हिंसा पैदा होगी।
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अगर भारत को नैतिक शक्ति के आधार पर आज़ादी पानी है तो उसे सही साधनों से पाना होगा।
उनका विचार था:
"साधन और साध्य दोनों शुद्ध होने चाहिए। यदि साधन अशुद्ध होंगे तो साध्य (परिणाम) भी अशुद्ध होगा।"
यही कारण था कि गांधीजी क्रांतिकारियों की हिंसक गतिविधियों से सहमत नहीं थे। लेकिन वे उनके देशभक्ति और साहस का सम्मान अवश्य करते थे।
क्रांतिकारियों के प्रति दृष्टिकोण
गांधीजी ने कई बार सार्वजनिक मंचों से कहा कि—
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भगत सिंह जैसे युवा निडर और देशभक्त हैं।
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वे गलत रास्ते (हिंसा) पर हैं, लेकिन उनकी भावना पवित्र है।
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यदि उनका जीवन बचाया जाए तो वे भारत के लिए और बड़ा योगदान दे सकते हैं।
गांधीजी के अनुसार, हिंसा आंदोलन को कमजोर कर देती है क्योंकि अंग्रेज सरकार इसे बहाना बनाकर और अधिक दमन कर सकती है।
गांधी और भगत सिंह — समानताएँ और भिन्नताएँ
समानताएँ
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देशभक्ति: दोनों का अंतिम लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता था।
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त्याग और बलिदान: दोनों ने अपने निजी सुख-सुविधाओं को त्याग दिया।
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युवाओं पर प्रभाव: गांधी और भगत सिंह दोनों ही लाखों युवाओं के प्रेरणास्रोत बने।
भिन्नताएँ
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मार्ग:
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गांधी: अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग।
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भगत सिंह: क्रांति, यदि ज़रूरी हो तो हिंसात्मक कार्रवाई।
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दृष्टिकोण:
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गांधी: जनांदोलन के द्वारा धीरे-धीरे परिवर्तन।
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भगत सिंह: तीव्र और साहसिक कार्रवाई से तत्काल झटका।
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राजनीतिक लक्ष्य:
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गांधी: स्वराज और रामराज्य की कल्पना।
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भगत सिंह: समाजवादी भारत जहाँ शोषण न हो।
गांधीजी और भगत सिंह की फांसी — ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
लाहौर षड्यंत्र केस
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1929 में असेंबली बम कांड के बाद भगत सिंह गिरफ्तार हुए।
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1930 में उन पर और उनके साथियों पर मुकदमा चला।
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अक्टूबर 1930 को विशेष न्यायाधिकरण ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी।
गांधी-इरविन समझौता (1931)
इसी दौरान महात्मा गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच वार्ता हुई।
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गांधीजी ने नमक सत्याग्रह के बाद असहयोग आंदोलन को स्थगित करने पर सहमति जताई।
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बदले में अंग्रेज सरकार ने राजनीतिक कैदियों को रिहा करने और दमनकारी नीतियों में ढील देने का वादा किया।
यही वह समय था जब पूरे देश की नजर इस पर थी कि क्या गांधीजी भगत सिंह की सजा को कम करने या स्थगित करने की शर्त रखेंगे।
क्या गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश की?
यह भाग सबसे अधिक विवादित है। यहाँ विभिन्न स्रोतों से प्रमाणों का विश्लेषण है।
वो प्रमाण जो कहते हैं कि गांधीजी ने प्रयास किया
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विस्करॉय (Lord Irwin) से अनेक मौकों पर बातचीत
गांधीजी ने गांधी-इरविन समझौते (Gandhi-Irwin Pact) के दौरान 17 फरवरी से 5 मार्च 1931 तक हुए वार्तालापों के दौरान भगत सिंह के केस को उठाया। -
निष्पादन को स्थगित (suspend) करने की माँग
गांधीजी ने निष्पादन (execution) को तुरंत नहीं कम्युट (commute) करने की मांग की थी, बल्कि निष्पादन की तारीख को स्थगित करने की पेशकश की। उदाहरण के तौर पर उन्होंने 18 फरवरी 1931 को इसे उठाया। आखिरी समय तक किये गए पत्र और अपीलें
गांधीजी ने अंतिम दिन भी वाइसराय को लिखा, सार्वजनिक और निजी रूप से अपील की कि यदि संभव हो तो भगत सिंह और उनके साथियों की सजा को कम किया जाये या स्थगित किया जाए।-
समय पाने की रणनीति
गांधी और कांग्रेस यह उम्मीद कर रहे थे कि यदि सजा स्थगित हो जाती है, तो देश में सार्वजनिक दबाव, भावनात्मक समर्थन, और अन्य राजनीतिक परिदृश्यों का लाभ लेते हुए कम्युटेशन या किसी तरह की क्षमायाचना संभव हो सके।
वो प्रमाण जो सीमाएँ दिखाते हैं
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कम्युटेशन की माँग नहीं करना
गांधीजी ने कभी निरन्तर और स्पष्ट रूप से 'कम्युटेशन - मृत्युदंड को बदलने' के लिए शर्त नहीं बनाई कि समझौता (Pact) तभी होगा। उन्होंने कहा कि Working Committee ने तय किया था कि यह संपार्श्विक मामला होगा, समझौते की शर्त नहीं। -
भगत सिंह के स्वयं की इच्छा
भगत सिंह ने स्वयं यह नहीं चाहा कि वे किसी तरह की दया-याचना करें। उन्होंने मृत्युदंड स्वीकार किया, martyrdom को एक दृष्टिकोण माना। उनकी सोच थी कि बलिदान से उदाहरण बनेगा, और आंदोलन को प्रेरणा। -
ब्रिटिश सत्ता की सीमाएँ और दबाव
वाइसराय और ब्रिटिश प्रशासन पर अंग्रेज सरकारी और सिविल सेवा अधिकारीओं का दबाव था कि क्रांतिकारियों को छोड़ा न जाए। पंजाब सरकार और अंग्रेज़ अधिकारी असहमत थे कि सजा बदली जाए। राजनीतिक समझौते का महत्व
गांधीजी ने यह माना कि पूर्ण आज़ादी की लड़ाई में बड़े राजनीतिक क्षणों को खोना नहीं चाहिए। गांधी-इरविन समझौता अहम था क्योंकि उसने व्यापक राजनीतिक क्षितिज पर आंदोलन को कानूनी, राजनीतिक मंज़ूरी दिलाई। इसमें सैकड़ों राजनीतिक बंदियों की रिहाई भी शामिल थी। परन्तु भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की सजा इस समझौते के अधीन नहीं थी।
निष्कर्ष: कितनी कोशिश, लेकिन क्यों सफल नहीं हुई
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हाँ, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से स्पष्ट है कि गांधीजी ने वास्तव में प्रयास किया — संवाद, अपीलें, स्थगन की मांग, जनसंवेदना जगाना, राजनीतिक दबाव।
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लेकिन सफलता नहीं हुई क्योंकि:
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भगत सिंह और साथियों ने दया-याचना प्रस्ताव ना स्वीकार किया। वे martyrdom की इच्छा रखते थे।
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ब्रिटिश सरकार की कठोर नीतियाँ, विशेष न्यायाधिकरण और सज़ा सुनाने की प्रक्रिया ने कानूनी अपीलों और सलाहों को सीमित कर दिया।
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गांधीजी की राजनीतिक रणनीति में अहिंसा और संविधानिक मार्ग मुख्य, जनता के व्यापक हितों का दृष्टिकोण मुख्य था, जिससे क्रांतिकारी हिंसा को लेकर उनका दृष्टिकोण सशक्त समर्थन ना करना रहा।
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समय और स्थिति भी ऐसी थी कि निष्पादन तिथि और कानूनी निर्णय लगभग अंतिम हो चुके थे—विशेष न्यायाधिकरण, सुप्रीम कोर्ट या प्रिवी काउन्सिल अपीलें विफल हो चुकी थीं।
विश्लेषण: गांधी का दृष्टिकोण, सीमाएँ और आलोचनाएँ
यहाँ कुछ गहन विश्लेषण है कि क्यों गांधीजी की कोशिशों को कुछ लोग अपर्याप्त मानते हैं, और क्या वे नैतिक, राजनीतिक या रणनीति की दृष्टि से सही थे।
नैतिक स्थिति
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गांधीजी की मान्यता: जीवन मूल्यवान है, किसी का भी जीवन समाप्ति अपरिवर्तनीय है। मृत्युदंड और राज्य द्वारा हत्या (even if by law) को वह नैतिक रूप से स्वीकार नहीं करते थे।
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लेकिन, भगत सिंह की इच्छा और उनके साथी क्रांतिकारियों की दृढ़ता अपने बलिदान की — ये बातें गांधीजी की नैतिक दृष्टिकोण से जटिल बनाती थीं। क्योंकि भगत सिंह जीवन त्याग (martyrdom) को स्वयं स्वीकार कर चुके थे।
राजनीतिक रणनीति
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गांधी-इरविन समझौता देशव्यापी आंदोलन के लिए एक बड़ा मोड़ था। इसमें देश भर के राजनीतिक बंदियों की रिहाई जैसी संवेदनशील माँगें थीं। यह समझौता तब संभव हुआ जब राजनीतिक हिंसा और नागरिक अवज्ञा आंदोलन दोनों लोकप्रिय और प्रभावशाली हो चुके थे। भगत सिंह के मामले को विशेष तौर पर शामिल करना समझौते की संभावनाओं को जटिल बना सकता था।
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यदि गांधीजी ने भगत सिंह के बचाव को समझौते की शर्त बना दिया होता, तो ब्रिटिश सरकार इसे तर्क दे सकती थी कि कांग्रेस हिंसात्मक क्रांतिकारियों के पक्ष में है; इससे आंदोलन को हिंसा की ओर झुकने का आरोप लग सकता था और अहिंसक जनसमर्थन कमजोर हो सकता था।
आलोचनाएँ
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आलोचक कहते हैं कि गांधीजी ने पर्याप्त दबाव नहीं डाला या समय पर कार्रवाई नहीं की। कि उनकी सार्वजनिक अपीलें और मार्ग बेहतर हो सकते थे।
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गांधीजी और कांग्रेस की नीति में क्रांतिकारी विचारों को लगातार साझा मंज़ूरी नहीं मिली; इसलिए क्रांतिकारियों को पूरा राजनीतिक और सामाजिक समर्थन नहीं प्राप्त हुआ।
अंत में: निष्कर्ष
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गांधीजी ने वास्तव में भगत सिंह को फांसी से बचाने की कई कोशिशें कीं — वाइसराय से मिलना, निष्पादन स्थगित करने की माँग, सार्वजनिक और निजी अपीलें। ये प्रयास इतिहास में दर्ज हैं।
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पर सफलता नहीं हुई, क्योंकि कई कारक मिले: भगत सिंह की स्वयं की इच्छा, ब्रिटिश सत्ता का कठोर दायरा, न्यायिक प्रणाली की सीमाएँ, राजनीतिक रणनीति की मजबूरियाँ, और गांधीजी की अहिंसात्मक सिद्धांतों की प्रतिबद्धता।
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यह कहना कि गांधी ने “कुछ नहीं किया” या “पूरी तरह प्रयास नहीं किया” — दोनों ही अतिशयोक्ति होंगी। उनका दृष्टिकोण और कार्य दो तरफ़ा दबावों, सिद्धांतों और व्यावहारिक सीमाओं के बीच था।
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भगत सिंह की विरासत न सिर्फ़ बलिदान है, बल्कि यह पूछने का साहस कि आज़ादी क्या है, किन साधनों से आती है, किस तरह की आज़ादी हम चाहते हैं — और सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, मानव गरिमा शामिल है या नहीं।

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