द्वितीय विश्व युद्ध क्यों हुआ? प्रथम विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियाँ और कारण

मानव इतिहास में कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो पूरी दुनिया की दिशा बदल देती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) ऐसी ही एक महाविनाशक घटना थी, जिसने न केवल करोड़ों लोगों की जान ली, बल्कि राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की संरचना को पूरी तरह बदल दिया।

यह युद्ध केवल देशों के बीच हथियारों की लड़ाई नहीं था, बल्कि यह विचारधाराओं, सत्ता-लालसा, बदले की भावना और मानव अहंकार का टकराव था।

अक्सर पूछा जाता है—

  1. “द्वितीय विश्व युद्ध आखिर क्यों हुआ?”
  2. “क्या यह अचानक हुआ या इसकी जड़ें पहले से मौजूद थीं?”

इस लेख में हम प्रथम विश्व युद्ध के बाद की स्थिति से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक, हर पहलू को गहराई से समझेंगे।


द्वितीय विश्व युद्ध क्यों हुआ? प्रथम विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियाँ और कारण


प्रथम विश्व युद्ध के बाद की वैश्विक स्थिति

1918 में जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, तब पूरी दुनिया थकी हुई, घायल और भयभीत थी। चार वर्षों तक चले इस युद्ध ने यूरोप की आत्मा को झकझोर दिया था। खेत उजड़ चुके थे, शहर खंडहर बन चुके थे और एक पूरी पीढ़ी या तो युद्ध में मर चुकी थी या मानसिक रूप से टूट चुकी थी। युद्ध के अंत पर भले ही शांति की घोषणा की गई, लेकिन यह शांति कागज़ों पर थी, दिलों में नहीं।

युद्ध के बाद विजेता देशों ने यह मान लिया कि हारने वाले देशों को सख्त सज़ा देकर भविष्य के युद्धों को रोका जा सकता है। लेकिन इतिहास में अक्सर देखा गया है कि अत्यधिक दंड शांति नहीं, बल्कि बदले की भावना को जन्म देता है। यही भूल प्रथम विश्व युद्ध के बाद की गई।


वर्साय की संधि: शांति नहीं, अपमान का दस्तावेज़

1919 में पेरिस के वर्साय महल में जो संधि हुई, उसे आधिकारिक रूप से शांति समझौता कहा गया, लेकिन जर्मनी के लिए यह एक अपमानजनक फरमान था। जर्मनी को मजबूर किया गया कि वह युद्ध की पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करे। उस पर भारी आर्थिक जुर्माना लगाया गया, जिसे चुकाने में उसकी आने वाली पीढ़ियाँ भी सक्षम नहीं थीं। उसकी सेना को नाममात्र का कर दिया गया, नौसेना और वायुसेना लगभग समाप्त कर दी गई और उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र उससे छीन लिए गए।

इस संधि ने जर्मनी के आत्मसम्मान को गहरी चोट पहुँचाई। जर्मन जनता को लगा कि उन्हें जानबूझकर अपमानित किया गया है। यही भावना धीरे-धीरे पूरे समाज में फैल गई और लोकतांत्रिक सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ने लगा।


आर्थिक तबाही और सामाजिक अवसाद

वर्साय संधि के बाद जर्मनी की अर्थव्यवस्था बुरी तरह टूट गई। युद्ध हर्जाने की किस्तें चुकाने के लिए सरकार ने बेहिसाब नोट छापे, जिससे महँगाई बेलगाम हो गई। हालात इतने भयावह हो गए कि लोगों की जीवनभर की कमाई कुछ ही दिनों में बेकार हो जाती थी। मध्यम वर्ग, जो किसी भी देश की रीढ़ होता है, पूरी तरह बर्बाद हो गया।

इस आर्थिक संकट का सीधा असर समाज के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा। बेरोज़गारी बढ़ी, अपराध बढ़े और लोगों का लोकतंत्र से भरोसा उठता चला गया। जनता अब किसी ऐसे नेता की तलाश में थी जो उन्हें इस अराजकता से बाहर निकाल सके।


जर्मनी में लोकतंत्र की कमजोरी

प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई थी। कागज़ों पर यह एक आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह कमजोर, अस्थिर और जनता से कटी हुई सरकार थी। बार-बार सरकारें बदलती थीं, फैसले नहीं हो पाते थे और देश गहरे संकट में डूबा रहता था।

जब लोकतंत्र समस्याओं का समाधान नहीं कर पाता, तब लोग तानाशाही को एक विकल्प के रूप में देखने लगते हैं। जर्मनी में भी यही हुआ।


एडोल्फ हिटलर का उदय

इसी निराशा और गुस्से के माहौल में एडोल्फ हिटलर का उदय हुआ। हिटलर कोई साधारण नेता नहीं था। वह जानता था कि लोगों की भावनाओं से कैसे खेलना है। उसने जर्मन जनता को बताया कि उनकी गरीबी और दुर्दशा के लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि यहूदी, वर्साय संधि और कमजोर लोकतांत्रिक सरकार जिम्मेदार हैं।

हिटलर का सबसे बड़ा हथियार उसकी भाषा थी। वह तर्क से नहीं, भावनाओं से बात करता था। उसने जनता को गौरवशाली अतीत की याद दिलाई और भविष्य में एक महान जर्मनी का सपना दिखाया।

1933 में हिटलर जर्मनी का चांसलर बना और धीरे-धीरे उसने लोकतंत्र को समाप्त कर तानाशाही स्थापित कर ली। उसने जर्मनी को एक बार फिर शक्तिशाली बनाने का सपना दिखाया और जनता ने आंख मूंदकर उस पर विश्वास कर लिया।


नाज़ी विचारधारा और समाज का ज़हरीला रूपांतरण

हिटलर की नाज़ी विचारधारा ने जर्मन समाज को अंदर से बदल दिया। शिक्षा, मीडिया और संस्कृति के माध्यम से लोगों के मन में यह बात बैठा दी गई कि वे श्रेष्ठ हैं और बाकी दुनिया उनसे ईर्ष्या करती है। यहूदियों को अमानवीय दिखाया गया, जिससे उनके खिलाफ हिंसा को सही ठहराया जा सके।

यह वही चरण था जब द्वितीय विश्व युद्ध केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक संकट बनने लगा।


यूरोप की चुप्पी और गलत नीतियाँ

हिटलर ने वर्साय संधि की खुलेआम अवहेलना शुरू कर दी। उसने सेना का विस्तार किया, हथियार बनाए और पड़ोसी क्षेत्रों में घुसपैठ शुरू की। लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस, जो पहले ही युद्ध की तबाही से थके हुए थे, टकराव से बचना चाहते थे। उन्होंने यह सोचकर हिटलर को रोकने की कोशिश नहीं की कि शायद वह यहीं रुक जाएगा।

यह नीति इतिहास में “तुष्टिकरण की नीति” के नाम से जानी जाती है, और यही नीति आगे चलकर द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे बड़ी वजहों में से एक बनी।


द्वितीय विश्व युद्ध की ओर बढ़ते कदम

1938 तक यूरोप बारूद के ढेर पर खड़ा था। जर्मनी का आत्मविश्वास बढ़ चुका था और हिटलर को लगने लगा था कि दुनिया उसे रोकने की हिम्मत नहीं करेगी। यही आत्मविश्वास उसे एक और बड़े कदम की ओर ले गया—पोलैंड पर हमला।

1 सितंबर 1939 को जब जर्मन सेनाएँ पोलैंड में दाखिल हुईं, तब इतिहास ने करवट बदली। ब्रिटेन और फ्रांस ने अंततः युद्ध की घोषणा की। यहीं से द्वितीय विश्व युद्ध की औपचारिक शुरुआत हुई।


यूरोप से बाहर फैलता युद्ध: जब संघर्ष विश्व बन गया

पोलैंड पर जर्मनी के हमले के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध की चिंगारी सुलग चुकी थी, लेकिन कुछ ही महीनों में यह स्पष्ट हो गया कि यह युद्ध केवल यूरोप तक सीमित नहीं रहने वाला है। जर्मन सेना की रणनीति, जिसे ब्लिट्जक्रेग कहा गया, इतनी तेज़ और निर्दयी थी कि देखते ही देखते पोलैंड कुचल दिया गया। इसके बाद जर्मनी की सेनाएँ पश्चिम की ओर बढ़ीं और कुछ ही समय में डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैंड्स और बेल्जियम जैसे देशों को पराजित कर दिया।

फ्रांस, जो प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के खिलाफ सबसे बड़ा विजेता रहा था, इस बार कुछ ही हफ्तों में हार गया। पेरिस पर जर्मन झंडा लहराने लगा। यह क्षण पूरे यूरोप के लिए मानसिक आघात था। ऐसा लगने लगा कि हिटलर को कोई रोक नहीं सकता।

ब्रिटेन अब अकेला खड़ा था। जर्मन वायुसेना ने ब्रिटिश शहरों पर भीषण बमबारी शुरू की। रात-रात भर लंदन जलता रहा, लेकिन ब्रिटेन ने हार नहीं मानी। यही वह समय था जब विंस्टन चर्चिल जैसे नेता ने ब्रिटिश जनता को यह विश्वास दिलाया कि यह लड़ाई केवल जमीन की नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की है।


युद्ध की छाया एशिया तक पहुँचती है

यूरोप में युद्ध की आग भड़क चुकी थी, लेकिन एशिया में भी हालात शांत नहीं थे। जापान पहले से ही साम्राज्यवादी राह पर चल पड़ा था। चीन पर उसका हमला, कोरिया पर कब्ज़ा और दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर बढ़ती उसकी सेना इस बात का संकेत थी कि एशिया भी बड़े संघर्ष की ओर बढ़ रहा है।

जापान खुद को पश्चिमी शक्तियों से कम नहीं समझता था। उसे लगने लगा था कि एशिया पर शासन करने का अधिकार उसी का है। इसी सोच ने उसे अमेरिका से टकराव की ओर धकेला। 7 दिसंबर 1941 को जब जापान ने अमेरिका के पर्ल हार्बर नौसैनिक अड्डे पर अचानक हमला किया, तब इतिहास ने एक और निर्णायक मोड़ लिया। अमेरिका, जो अब तक युद्ध से दूर रहने की कोशिश कर रहा था, खुलकर द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल हो गया।

अब यह युद्ध सचमुच वैश्विक बन चुका था। यूरोप, एशिया, अफ्रीका और समुद्र—हर जगह युद्ध की गूँज सुनाई देने लगी।


धुरी राष्ट्र और मित्र राष्ट्र: दो विचारधाराओं का टकराव

द्वितीय विश्व युद्ध केवल देशों का संघर्ष नहीं था, बल्कि दो विचारधाराओं की टक्कर थी। एक ओर थे धुरी राष्ट्र—जर्मनी, इटली और जापान—जो विस्तार, शक्ति और नस्लीय श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे। दूसरी ओर थे मित्र राष्ट्र—ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और अमेरिका—जो अपने-अपने हितों के साथ स्वतंत्रता और संतुलन की बात कर रहे थे।

हालाँकि मित्र राष्ट्रों के भीतर भी पूरी एकता नहीं थी, लेकिन हिटलर और उसके सहयोगियों को रोकना उस समय सबकी प्राथमिकता बन चुका था।


सोवियत संघ और युद्ध का निर्णायक मोड़

1941 में हिटलर ने एक ऐतिहासिक भूल की। उसने सोवियत संघ पर हमला कर दिया। यह हमला उसकी सबसे बड़ी गलती साबित हुआ। शुरुआत में जर्मन सेनाएँ तेज़ी से आगे बढ़ीं, लेकिन रूस की विशाल भूमि, कठोर सर्दी और सोवियत प्रतिरोध ने जर्मन सेना की कमर तोड़ दी।

स्टालिनग्राड की लड़ाई ने युद्ध की दिशा बदल दी। यह केवल एक शहर की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह साबित हो गया कि जर्मनी को भी हराया जा सकता है। लाखों सैनिक मारे गए, और जर्मन सेना पहली बार पीछे हटने पर मजबूर हुई।


होलोकॉस्ट: मानवता का सबसे काला अध्याय

इसी युद्ध के बीच नाज़ी शासन ने इतिहास का सबसे भयावह अपराध अंजाम दिया। यहूदियों, रोमा समुदाय, विकलांगों और अन्य अल्पसंख्यकों को व्यवस्थित रूप से खत्म किया गया। गैस चैंबर, यातना शिविर और सामूहिक हत्याएँ मानवता पर ऐसा दाग हैं जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता।

होलोकॉस्ट यह याद दिलाता है कि जब नफरत को राज्य की नीति बना दिया जाए, तब सभ्यता कितनी आसानी से बर्बरता में बदल जाती है।


युद्ध का अंत और परमाणु युग की शुरुआत

यूरोप में जर्मनी की हार लगभग तय हो चुकी थी। 1945 में बर्लिन गिर गया और हिटलर ने आत्महत्या कर ली। लेकिन एशिया में युद्ध अभी बाकी था। जापान हार मानने को तैयार नहीं था। तब अमेरिका ने ऐसा कदम उठाया जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया।

हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों ने युद्ध को समाप्त कर दिया, लेकिन इसके साथ ही मानवता एक नए युग में प्रवेश कर गई—परमाणु युग। यह स्पष्ट हो गया कि अब एक और विश्व युद्ध पूरी सभ्यता को समाप्त कर सकता है।


युद्ध के बाद की दुनिया और नई वैश्विक व्यवस्था

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई ताकि भविष्य में ऐसे युद्धों को रोका जा सके। लेकिन दुनिया शांति की ओर बढ़ने के बजाय दो ध्रुवों में बँट गई—अमेरिका और सोवियत संघ। शीत युद्ध की शुरुआत हो गई, जिसमें हथियार नहीं, बल्कि विचारधाराएँ टकरा रही थीं।


युद्ध की आग और भारत पर उसका प्रभाव

जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, तब भारत प्रत्यक्ष रूप से युद्धभूमि नहीं बना, लेकिन इसका प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर गहराई से पड़ा। उस समय भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और ब्रिटेन ने बिना भारतीय नेताओं की सहमति के भारत को युद्ध में झोंक दिया। लाखों भारतीय सैनिकों को यूरोप, अफ्रीका और एशिया के मोर्चों पर भेजा गया। वे एक ऐसे युद्ध में लड़ रहे थे, जो उनके अपने देश की स्वतंत्रता के लिए नहीं, बल्कि एक साम्राज्य की रक्षा के लिए था।

युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ा। खाद्यान्न की कमी, महँगाई और बेरोज़गारी ने आम जनता की कमर तोड़ दी। 1943 का बंगाल अकाल इसी युद्ध की देन था, जिसमें लाखों लोग भूख से मर गए। ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ इस संकट को और भयावह बनाती चली गईं। यह दौर भारतीय जनता के लिए केवल आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक आघात भी था।


स्वतंत्रता आंदोलन और युद्ध का टकराव

द्वितीय विश्व युद्ध ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को भी निर्णायक मोड़ दिया। महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार से स्पष्ट कहा कि अगर भारत को स्वतंत्रता का वादा नहीं किया गया, तो वह युद्ध में सहयोग नहीं करेंगे। इसके परिणामस्वरूप “भारत छोड़ो आंदोलन” शुरू हुआ, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी।

वहीं दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता थे, जो यह मानते थे कि ब्रिटेन के दुश्मन भारत के मित्र हो सकते हैं। उन्होंने आज़ाद हिंद फौज का गठन किया और जापान तथा जर्मनी की सहायता से ब्रिटिश शासन को चुनौती देने का प्रयास किया। यह दौर भारतीय राजनीति के भीतर गहरे वैचारिक मतभेदों का भी था, लेकिन एक बात स्पष्ट थी—द्वितीय विश्व युद्ध ने भारत की स्वतंत्रता की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया।


युद्ध के सामाजिक और मानसिक प्रभाव

द्वितीय विश्व युद्ध ने केवल सीमाएँ नहीं बदलीं, बल्कि समाज की मानसिक संरचना को भी बदल दिया। लाखों सैनिक जब युद्ध से लौटे, तो वे केवल घायल शरीर लेकर नहीं आए, बल्कि टूटे हुए मन भी लेकर आए। परिवार उजड़ चुके थे, महिलाएँ विधवा हो चुकी थीं और बच्चों ने अपने पिता खो दिए थे।

यूरोप में पूरे-पूरे शहर फिर से बसाने पड़े। जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन की सड़कों पर युद्ध की छाया वर्षों तक बनी रही। यह वह समय था जब मानवता ने पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अपने ही विनाश को देखा।


महिलाओं की बदलती भूमिका

इस युद्ध का एक महत्वपूर्ण, लेकिन अक्सर अनदेखा पहलू यह था कि इसने महिलाओं की भूमिका को बदल दिया। जब पुरुष युद्ध में चले गए, तब कारखानों, दफ्तरों और अस्पतालों की जिम्मेदारी महिलाओं ने संभाली। उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे केवल घर तक सीमित नहीं हैं। युद्ध के बाद यह बदलाव स्थायी हो गया और दुनिया भर में महिलाओं के अधिकारों की नई चेतना पैदा हुई।


विज्ञान, तकनीक और युद्ध

द्वितीय विश्व युद्ध ने विज्ञान और तकनीक को अभूतपूर्व गति दी। रडार, जेट इंजन, कंप्यूटर और अंततः परमाणु बम—ये सभी इसी युद्ध की देन हैं। लेकिन यह प्रगति दोधारी तलवार की तरह थी। एक ओर इसने मानव जीवन को आसान बनाया, दूसरी ओर उसे समाप्त करने की क्षमता भी बढ़ा दी।

परमाणु बम का प्रयोग मानव इतिहास का सबसे डरावना क्षण था। पहली बार इंसान ने ऐसा हथियार बनाया था, जो पूरी सभ्यता को खत्म कर सकता था। इसके बाद युद्ध केवल सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न बन गया।


युद्ध के बाद की राजनीति और शीत युद्ध की शुरुआत

द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होते ही दुनिया ने राहत की साँस ली, लेकिन शांति ज्यादा दिन टिक नहीं पाई। अमेरिका और सोवियत संघ, जो युद्ध के दौरान सहयोगी थे, अब एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन गए। विचारधाराओं का संघर्ष शुरू हो गया—एक ओर पूँजीवाद, दूसरी ओर साम्यवाद।

यही संघर्ष शीत युद्ध के रूप में सामने आया। प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ, लेकिन दुनिया लगातार तनाव में जीने लगी। हथियारों की दौड़, परमाणु परीक्षण और गुप्त युद्धों ने यह साबित कर दिया कि द्वितीय विश्व युद्ध की छाया अब भी दुनिया पर मंडरा रही थी।


संयुक्त राष्ट्र और शांति का प्रयास

द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभव से यह स्पष्ट हो गया था कि अगर देशों के बीच संवाद और सहयोग की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं बनी, तो मानव सभ्यता बार-बार विनाश की ओर जाएगी। इसी सोच के तहत संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य था—युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना और देशों के बीच सहयोग बढ़ाना।

हालाँकि संयुक्त राष्ट्र ने कई क्षेत्रों में सफलता पाई, लेकिन यह भी सच है कि वह हर युद्ध को रोकने में सक्षम नहीं रहा। फिर भी, यह द्वितीय विश्व युद्ध से मिली सबसे महत्वपूर्ण सीखों में से एक था।


द्वितीय विश्व युद्ध से मिलने वाली गहरी सीख

द्वितीय विश्व युद्ध हमें यह सिखाता है कि इतिहास कभी अचानक नहीं बदलता। बड़े युद्धों से पहले समाज में छोटे-छोटे संकेत दिखाई देते हैं—आर्थिक असमानता, राजनीतिक अस्थिरता, नस्लीय घृणा और आक्रामक राष्ट्रवाद। अगर इन संकेतों को समय रहते नहीं समझा गया, तो परिणाम विनाशकारी होते हैं।

यह युद्ध यह भी सिखाता है कि चुप्पी कभी-कभी अपराध के बराबर होती है। अगर शुरुआती दौर में हिटलर को रोका गया होता, तो शायद दुनिया को इतना बड़ा मूल्य नहीं चुकाना पड़ता।


निष्कर्ष: अतीत से भविष्य की ओर

द्वितीय विश्व युद्ध केवल इतिहास का अध्याय नहीं है, बल्कि यह मानवता के लिए चेतावनी है। यह हमें याद दिलाता है कि शक्ति जब विवेक से अलग हो जाती है, तब वह विनाश का रूप ले लेती है। 

यह युद्ध हमें यह भी सिखाता है कि शांति केवल युद्ध न होने का नाम नहीं, बल्कि न्याय, सम्मान और समानता की स्थापना का नाम है।

जब तक दुनिया इन मूल्यों को नहीं अपनाएगी, तब तक द्वितीय विश्व युद्ध जैसी त्रासदियाँ इतिहास के पन्नों में नहीं, बल्कि भविष्य की आशंका बनकर हमारे सामने खड़ी रहेंगी।

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