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अठारहवीं शताब्दी का भारत राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता संघर्ष और क्षेत्रीय शक्तियों के उदय का काल था। मुगल साम्राज्य, जो कभी पूरे उपमहाद्वीप का नियंत्रक रहा था, अब केवल नाम मात्र का शासक बन चुका था। दिल्ली की गद्दी पर बैठा सम्राट वास्तविक शक्ति से वंचित था और उसका अस्तित्व विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों की दया पर निर्भर था। इसी सत्ता शून्य के वातावरण में मराठा साम्राज्य भारत की सबसे प्रभावशाली शक्ति के रूप में उभरा।
मराठा साम्राज्य केवल सैन्य शक्ति नहीं था, बल्कि वह एक ऐसा राजनीतिक संगठन था जिसने भारत में सत्ता के पारंपरिक ढाँचे को चुनौती दी। मराठों ने न केवल मुगलों को पीछे हटने पर मजबूर किया, बल्कि यह भी सिद्ध किया कि भारतीय शक्तियाँ विदेशी या केंद्रीय साम्राज्यों के बिना भी शासन कर सकती हैं। इसके बावजूद, यही मराठा साम्राज्य कुछ दशकों के भीतर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने पराजित हो गया।
यह लेख इसी ऐतिहासिक विरोधाभास को समझने का प्रयास है।
मराठा साम्राज्य का उदय: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मराठा साम्राज्य का उदय सत्रहवीं शताब्दी में हुआ, जब दक्कन क्षेत्र मुगल, आदिलशाही और कुतुबशाही जैसी शक्तियों के बीच संघर्ष का केंद्र बना हुआ था। इसी अस्थिर वातावरण में शिवाजी महाराज ने एक स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की। शिवाजी का शासन केवल शक्ति प्रदर्शन पर आधारित नहीं था, बल्कि वह एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था, संगठित राजस्व प्रणाली और स्थानीय जनता के समर्थन पर टिका हुआ था।
शिवाजी ने पहली बार यह स्पष्ट किया कि सत्ता केवल वंश या धार्मिक वैधता से नहीं, बल्कि कुशल शासन से प्राप्त की जा सकती है। उन्होंने किलों को केवल सैन्य ठिकानों के रूप में नहीं, बल्कि प्रशासनिक केंद्रों के रूप में विकसित किया। भूमि राजस्व प्रणाली को व्यवस्थित किया गया और स्थानीय अधिकारियों को उत्तरदायी बनाया गया। यही कारण था कि मराठा सत्ता केवल विजित क्षेत्रों तक सीमित नहीं रही, बल्कि जनता के बीच स्वीकार्य भी बनी।
शिवाजी के बाद मराठा साम्राज्य का विस्तार
शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य समाप्त नहीं हुआ, बल्कि उसने और व्यापक विस्तार किया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पेशवा संस्था का उदय हुआ और मराठा प्रशासन का वास्तविक केंद्र पुणे बन गया। पेशवाओं, विशेषकर बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठा सेना ने अभूतपूर्व सैन्य सफलताएँ प्राप्त कीं।
मराठा प्रभाव मालवा, गुजरात, बुंदेलखंड और उत्तर भारत तक फैल गया। दिल्ली पर मराठा नियंत्रण ने यह स्पष्ट कर दिया कि मुगल साम्राज्य अब स्वतंत्र शक्ति नहीं रहा। मराठा साम्राज्य की आर्थिक शक्ति भी बढ़ी, क्योंकि चौथ और सरदेशमुखी जैसे करों के माध्यम से उन्हें विशाल राजस्व प्राप्त होने लगा।
हालाँकि, इसी विस्तार के साथ एक महत्वपूर्ण संरचनात्मक समस्या भी उत्पन्न हुई।
मराठा साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना
मराठा साम्राज्य एक केंद्रीकृत राज्य नहीं था। यह एक संघात्मक व्यवस्था थी, जिसमें विभिन्न सरदार अपने-अपने क्षेत्रों में लगभग स्वतंत्र थे। पेशवा औपचारिक रूप से सर्वोच्च थे, लेकिन वास्तविक शक्ति क्षेत्रीय नेताओं के हाथों में थी।
यह व्यवस्था अल्पकाल में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई। मराठा सेना तेजी से विभिन्न दिशाओं में अभियान चला सकती थी और स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार निर्णय ले सकती थी। लेकिन दीर्घकाल में यह व्यवस्था साम्राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई। केंद्रीय नियंत्रण के अभाव में दीर्घकालिक नीति बनाना कठिन हो गया और सरदारों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी।
मराठा सैन्य प्रणाली: शक्ति और सीमाएँ
मराठा सैन्य शक्ति मुख्यतः घुड़सवार सेना पर आधारित थी। यह सेना तेज़, गतिशील और छापामार युद्ध में अत्यंत प्रभावी थी। मराठा योद्धा स्थानीय भूगोल का उत्कृष्ट ज्ञान रखते थे और अचानक आक्रमण कर शत्रु को नुकसान पहुँचाने में माहिर थे।
लेकिन यह सैन्य प्रणाली स्थायी युद्धों और संगठित यूरोपीय सेनाओं के विरुद्ध कम प्रभावी सिद्ध हुई। मराठा सेना के पास स्थायी पैदल सेना, आधुनिक तोपखाना और एकीकृत कमान प्रणाली का अभाव था। यह कमी अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष में निर्णायक साबित हुई।
पेशवा और सरदारों के बीच शक्ति संघर्ष
मराठा साम्राज्य के भीतर सबसे गंभीर समस्या पेशवा और क्षेत्रीय सरदारों के बीच शक्ति संघर्ष थी। प्रत्येक सरदार अपने क्षेत्र में स्वतंत्र नीति अपनाना चाहता था और केंद्रीय सत्ता को केवल आवश्यकता पड़ने पर स्वीकार करता था। इससे साम्राज्य की एकता कमजोर होती गई।
अंग्रेज़ों ने इसी आंतरिक राजनीति को समझा और इसका लाभ उठाया। वे जानते थे कि मराठों को पराजित करने के लिए उन्हें सैन्य रूप से नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से विभाजित करना होगा।
तीसरी पानीपत की लड़ाई के बाद मराठा साम्राज्य की स्थिति
1761 की तीसरी पानीपत की लड़ाई मराठा इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से एक थी, लेकिन इसके प्रभाव को अक्सर गलत ढंग से समझा जाता है। इस युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य अचानक समाप्त नहीं हुआ, न ही उसकी सैन्य क्षमता पूरी तरह नष्ट हुई। वास्तविक प्रभाव राजनीतिक अस्थिरता और नेतृत्व संकट के रूप में सामने आया।
मराठा सेना ने इस युद्ध में अपने सर्वश्रेष्ठ सेनापति, अनुभवी योद्धा और संगठित नेतृत्व का बड़ा हिस्सा खो दिया। इससे भी अधिक गंभीर समस्या यह थी कि मराठा नेतृत्व के भीतर भविष्य को लेकर स्पष्ट दिशा का अभाव उत्पन्न हो गया। पानीपत के बाद मराठा सत्ता पुनर्गठित तो हुई, लेकिन वह पहले जैसी आत्मविश्वासी और आक्रामक नहीं रही।
मराठा राजनीति अब रक्षात्मक मानसिकता में प्रवेश कर चुकी थी, और यही परिवर्तन अंग्रेज़ों के लिए सबसे बड़ा अवसर सिद्ध हुआ।
पेशवा सत्ता की कमजोरी और आंतरिक संघर्ष
पानीपत के बाद पेशवा की स्थिति नाममात्र की सर्वोच्च सत्ता तक सीमित होती चली गई। वास्तविक शक्ति विभिन्न मराठा सरदारों के हाथों में बँट गई, जो अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र निर्णय लेने लगे। पुणे दरबार अब पूरे साम्राज्य के लिए स्पष्ट नीति तय करने की स्थिति में नहीं रहा।
इस दौर में मराठा राजनीति लगातार आंतरिक संघर्षों से घिरी रही। उत्तराधिकार विवाद, व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं ने मराठा साम्राज्य को अंदर से कमजोर कर दिया। यह स्थिति अंग्रेज़ों के लिए आदर्श थी, क्योंकि उन्हें किसी एक शक्तिशाली केंद्र से नहीं, बल्कि कई बिखरी हुई शक्तियों से निपटना पड़ रहा था।
अंग्रेज़ों की बदलती रणनीति: प्रत्यक्ष युद्ध से राजनीतिक हस्तक्षेप तक
पानीपत के बाद अंग्रेज़ों की नीति में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई देता है। उन्होंने मराठों से सीधे युद्ध करने के बजाय धीरे-धीरे राजनीतिक और कूटनीतिक हस्तक्षेप बढ़ाना शुरू किया। अंग्रेज़ यह समझ चुके थे कि मराठों को सैन्य रूप से हराना संभव तो है, लेकिन अत्यंत महँगा और जोखिमपूर्ण होगा।
इसके बजाय उन्होंने मराठा राजनीति में प्रवेश कर उसे अंदर से कमजोर करने का रास्ता चुना। संधियाँ, सैन्य सहायता, ऋण और मध्यस्थता — ये सभी अंग्रेज़ी रणनीति के उपकरण बन गए।
पहला आंग्ल–मराठा युद्ध और उसकी सीमाएँ
1775 में शुरू हुआ पहला आंग्ल–मराठा युद्ध इस बात का प्रमाण था कि मराठा साम्राज्य अभी भी एक गंभीर शक्ति बना हुआ था। इस युद्ध में अंग्रेज़ों को निर्णायक सफलता नहीं मिली और अंततः उन्हें समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा।
हालाँकि, इस युद्ध ने अंग्रेज़ों को एक महत्वपूर्ण सबक दिया — मराठों को केवल युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि राजनीतिक मंच पर हराना होगा। इसी समझ ने आगे चलकर अंग्रेज़ी नीति को और अधिक परिष्कृत बनाया।
मराठा सरदारों की व्यक्तिगत राजनीति
मराठा साम्राज्य के पतन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका क्षेत्रीय सरदारों की व्यक्तिगत राजनीति ने निभाई। सिंधिया, होल्कर, भोंसले और गायकवाड़ — सभी अपने-अपने क्षेत्रों में शक्ति संतुलन बनाए रखने में लगे थे। इनमें से कोई भी साम्राज्य को एकीकृत रखने के लिए दीर्घकालिक बलिदान को तैयार नहीं था।
अंग्रेज़ों ने इसी मानसिकता का लाभ उठाया। वे किसी एक सरदार को दूसरे के विरुद्ध समर्थन देकर अस्थायी लाभ देते थे, जिससे मराठा एकता और कमजोर होती चली गई।
Subsidiary Alliance प्रणाली की भूमिका
अंग्रेज़ों की सबसे प्रभावी नीति Subsidiary Alliance रही। इस व्यवस्था के तहत भारतीय शासकों को अंग्रेज़ी सेना की सुरक्षा स्वीकार करनी होती थी, जिसके बदले उन्हें अपनी स्वतंत्र सैन्य शक्ति और विदेशी नीति त्यागनी पड़ती थी।
मराठा सरदारों ने इस नीति को प्रारंभ में खतरे के रूप में नहीं देखा। वे इसे अपने प्रतिद्वंद्वियों से सुरक्षा का साधन मानते रहे। लेकिन धीरे-धीरे यही नीति मराठा साम्राज्य के राजनीतिक आत्मसमर्पण का माध्यम बन गई।
आर्थिक नियंत्रण और मराठा शक्ति का क्षरण
अंग्रेज़ों ने केवल सैन्य और राजनीतिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक स्तर पर भी मराठों को कमजोर किया। युद्धों, संधियों और ऋणों के माध्यम से मराठा राज्यों की आर्थिक स्वतंत्रता सीमित होती चली गई।
मराठा साम्राज्य, जो कभी चौथ और सरदेशमुखी के माध्यम से विशाल राजस्व प्राप्त करता था, अब अंग्रेज़ों पर निर्भर होता जा रहा था। यह आर्थिक निर्भरता आगे चलकर राजनीतिक निर्भरता में बदल गई।
दूसरा आंग्ल–मराठा युद्ध: निर्णायक मोड़
1803–1805 का दूसरा आंग्ल–मराठा युद्ध मराठा इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था। इस युद्ध में अंग्रेज़ों ने पहली बार मराठा शक्तियों को अलग-अलग कर निर्णायक रूप से पराजित किया। सिंधिया और भोंसले को भारी नुकसान उठाना पड़ा और अंग्रेज़ों का प्रभाव उत्तर और मध्य भारत में स्थायी रूप से स्थापित हो गया।
इस युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में लगभग समाप्त हो चुका था, हालाँकि उसका औपचारिक अंत अभी बाकी था।
दूसरे आंग्ल–मराठा युद्ध के बाद की स्थिति
1805 में दूसरे आंग्ल–मराठा युद्ध की समाप्ति के बाद मराठा साम्राज्य तकनीकी रूप से अभी अस्तित्व में था, लेकिन वास्तविकता में वह पहले ही निर्णायक रूप से कमजोर हो चुका था। इस युद्ध ने मराठा शक्ति के दो सबसे प्रभावशाली स्तंभों — सिंधिया और भोंसले — को अंग्रेज़ों के अधीन कर दिया था। उत्तर भारत, दोआब क्षेत्र और महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ चुके थे।
मराठा सत्ता अब न तो भौगोलिक रूप से एकजुट थी और न ही राजनीतिक रूप से। पेशवा पुणे में मौजूद था, लेकिन उसकी स्थिति एक स्वतंत्र शासक से अधिक एक असहाय मध्यस्थ की हो चुकी थी। मराठा सरदार एक-दूसरे से अधिक अंग्रेज़ों पर निर्भर होते जा रहे थे। यह वही स्थिति थी, जिसकी ओर अंग्रेज़ वर्षों से धैर्यपूर्वक बढ़ रहे थे।
पेशवा बाजीराव द्वितीय और नेतृत्व की विफलता
मराठा साम्राज्य के अंतिम चरण में पेशवा बाजीराव द्वितीय की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। ऐतिहासिक विश्लेषण यह दर्शाता है कि बाजीराव द्वितीय न तो शिवाजी जैसे दूरदर्शी शासक थे और न ही पहले पेशवाओं जैसे निर्णायक सेनानायक। वे राजनीतिक रूप से अस्थिर, निर्णयहीन और परिस्थितियों से भयभीत रहने वाले शासक सिद्ध हुए।
बाजीराव द्वितीय ने मराठा साम्राज्य को पुनर्गठित करने के बजाय अपनी सत्ता बचाने पर अधिक ध्यान दिया। उन्होंने अंग्रेज़ों को अस्थायी सुरक्षा के साधन के रूप में देखा, जबकि अंग्रेज़ उन्हें दीर्घकालिक नियंत्रण के साधन के रूप में देख रहे थे। यही मानसिक असंतुलन मराठा साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ।
बासेन की संधि: आत्मसमर्पण का औपचारिक प्रारंभ
1802 में की गई बासेन की संधि मराठा इतिहास की सबसे निर्णायक और विवादास्पद घटनाओं में से एक थी। इस संधि के तहत पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों की Subsidiary Alliance प्रणाली को स्वीकार कर लिया। इसका अर्थ यह था कि पेशवा ने अपनी स्वतंत्र सैन्य शक्ति, विदेश नीति और रणनीतिक निर्णय लेने का अधिकार अंग्रेज़ों को सौंप दिया।
यह संधि केवल एक राजनीतिक समझौता नहीं थी, बल्कि मराठा साम्राज्य की संप्रभुता का औपचारिक अंत थी। मराठा सरदारों ने इस संधि को विश्वासघात के रूप में देखा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अंग्रेज़ अब पुणे की राजनीति में सीधे हस्तक्षेप करने लगे थे।
तीसरा आंग्ल–मराठा युद्ध (1817–1818): अंतिम संघर्ष
1817 में तीसरा आंग्ल–मराठा युद्ध प्रारंभ हुआ। यह युद्ध किसी एक घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि वर्षों से चल रही अंग्रेज़ी नीति का अंतिम चरण था। मराठा सरदारों ने अंतिम बार अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट होने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास देर से और बिना स्पष्ट नेतृत्व के किया गया।
इस युद्ध में मराठा सेनाएँ अलग-अलग मोर्चों पर लड़ीं, जबकि अंग्रेज़ों की सेना एक सुव्यवस्थित केंद्रीय योजना के तहत आगे बढ़ी। अंग्रेज़ों के पास प्रशिक्षित पैदल सेना, आधुनिक तोपखाना और संगठित आपूर्ति तंत्र था, जबकि मराठा सेना अभी भी पारंपरिक युद्ध पद्धतियों पर निर्भर थी।
युद्ध का परिणाम लगभग पूर्वनिर्धारित था। 1818 तक पेशवा की शक्ति पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी और मराठा साम्राज्य औपचारिक रूप से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
मराठा सैन्य पराजय के वास्तविक कारण
मराठा साम्राज्य की पराजय का कारण केवल सैन्य कमजोरी नहीं था। यदि ऐसा होता, तो अंग्रेज़ों को मराठों को पराजित करने में लगभग आधी सदी नहीं लगती। वास्तविक कारण कहीं अधिक गहरे और संरचनात्मक थे।
मराठा साम्राज्य एक संघात्मक शक्ति था, जिसमें केंद्रीय नेतृत्व की कमी थी। निर्णायक क्षणों में सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। इसके अतिरिक्त, मराठा राजनीति व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से ग्रस्त थी, जबकि अंग्रेज़ी नीति संस्थागत अनुशासन पर आधारित थी।
तकनीकी दृष्टि से भी मराठे धीरे-धीरे पीछे रह गए। यूरोपीय युद्ध पद्धति, स्थायी सेनाएँ और तोपखाने के प्रभाव को मराठा नेतृत्व समय रहते नहीं समझ सका।
आर्थिक और प्रशासनिक पतन
मराठा साम्राज्य की आर्थिक संरचना युद्धों और राजनीतिक अस्थिरता से गंभीर रूप से प्रभावित हुई। निरंतर संघर्षों के कारण राजस्व व्यवस्था कमजोर होती चली गई। चौथ और सरदेशमुखी जैसी व्यवस्थाएँ अब प्रभावी नहीं रहीं, और मराठा राज्य आर्थिक रूप से अंग्रेज़ों पर निर्भर होता गया।
इसके विपरीत, अंग्रेज़ों ने एक संगठित प्रशासनिक ढाँचा विकसित किया, जिसने उन्हें स्थायी नियंत्रण स्थापित करने में मदद की। यह प्रशासनिक श्रेष्ठता भी मराठा पतन का एक महत्वपूर्ण कारण बनी।
क्या मराठा साम्राज्य का पतन अपरिहार्य था?
यह प्रश्न इतिहासकारों के बीच लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मराठा साम्राज्य का पतन अपरिहार्य नहीं था। यदि मराठा नेतृत्व समय रहते अपनी संरचना में सुधार करता, केंद्रीय सत्ता को मजबूत करता और आधुनिक युद्ध पद्धतियों को अपनाता, तो इतिहास की दिशा भिन्न हो सकती थी।
लेकिन इतिहास “अगर” और “काश” पर नहीं चलता। मराठा नेतृत्व की राजनीतिक अदूरदर्शिता और अंग्रेज़ों की रणनीतिक श्रेष्ठता ने मिलकर वही परिणाम दिया, जो हमें इतिहास में दिखाई देता है।
मराठा साम्राज्य की ऐतिहासिक विरासत
मराठा साम्राज्य का महत्व केवल उसके पतन से नहीं, बल्कि उसकी विरासत से भी आँका जाना चाहिए। मराठों ने यह सिद्ध किया कि भारतीय शक्तियाँ विदेशी या साम्राज्यवादी शासन को चुनौती दे सकती हैं। उन्होंने भारतीय राजनीतिक चेतना को जागृत किया और भविष्य के स्वतंत्रता संघर्षों की नींव रखी।
मराठा परंपरा, प्रशासनिक अनुभव और सैन्य साहस आगे चलकर भारतीय राष्ट्रवाद का आधार बने। इस दृष्टि से मराठा साम्राज्य की हार अंतिम नहीं थी।
समग्र निष्कर्ष (Final Conclusion)
मराठा साम्राज्य की पराजय किसी एक युद्ध या किसी एक शासक की असफलता का परिणाम नहीं थी। यह एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें आंतरिक विभाजन, नेतृत्व संकट, तकनीकी पिछड़ापन और अंग्रेज़ों की संगठित कूटनीति शामिल थी।
अंग्रेज़ों ने मराठों को उनकी कमजोरी के कारण नहीं, बल्कि उनकी आंतरिक विफलताओं का रणनीतिक उपयोग करके पराजित किया। यह इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जो आज भी सत्ता, राजनीति और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में प्रासंगिक बना हुआ है।
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