1975 इंदिरा गांधी का आपातकाल: जब कैद हुआ लोकतंत्र

इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी का नाम आधुनिक भारत के सबसे विवादास्पद और प्रभावशाली नेताओं में गिना जाता है। उनके निर्णयों ने देश की दिशा बदली—कुछ निर्णयों ने राष्ट्रीय गौरव और सुरक्षा को मज़बूत किया, तो कुछ ने लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों पर गहरी बहस खड़ी कर दी। 1975-77 का आपातकाल (Emergency) उनके करियर का वह कालखंड है जिसने भारत के संवैधानिक, सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा। इस लेख का उद्देश्य केवल घटनाओं का वर्णन नहीं है — बल्कि पृष्ठभूमि, कारण, कार्यान्वयन, सामाजिक प्रभाव, वैधानिक परिणाम और ऐतिहासिक मूल्यांकन को समझना भी है। 


1975 इंदिरा गांधी का आपातकाल: जब कैद हुआ लोकतंत्र


प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक परिवेश

इंदिरा नेहरू (बाद में गांधी) का जन्म 19 नवंबर 1917 को इलाहाबाद में हुआ। वे जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू की पुत्री थीं — ऐसे परिवार में जहाँ सार्वजनिक सेवा, राष्ट्र-स्वरतन्त्रता के संघर्ष और राजनीतिक विमर्श रोज़मर्रा की बात थे। उनके बचपन की शिक्षा शांति निकेतन और बाद में यूरोप में हुई; उच्च शिक्षा के लिये उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड में भी अध्ययन किया। इस पारिवारिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि ने उनके राष्ट्रीय चिन्तन और नेतृत्व दृष्‍टि को आकार दिया। 

उनके व्यक्तिगत जीवन में बेशुमार चुनौतियाँ और निजी क्षोभ भी थे—विवाह (फेरोज़ गांधी), दो बेटे (संजय और राजीव), और व्यक्तिगत हानि-दुख; ये सब उनके निर्णय-निर्माण की भावनात्मक परतों को प्रभावित करते रहे। उनकी सार्वजनिक छवि में कई स्तर थे: दूरदर्शी नीतिकार, निर्णायक नेतृत्वकर्ता, और परिवार-केंद्रित राजनीति का प्रतीक — जिनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू इतिहास ने दर्ज किए हैं। 


राजनीतिक आरोहण: कांग्रेस से प्रधानमंत्री तक

इंदिरा गांधी कांग्रेस के भीतर धीरे-धीरे उभरीं। 1959 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मज़बूत की। 1966 में, लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं — पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में किसी महिला का आना भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक मोड़ था। 

उनके शुरुआती वर्षों में उन्हें 'कांग्रेसी पुरोधाओं की कठपुतली' समझा जाता था, परन्तु समय के साथ उन्होंने अपनी छवि बदलकर सख्त, केंद्रीकृत और निर्णायक नेता के रूप में खुद को स्थापित कर लिया। 1967-71 के वर्षों में उनकी लोकप्रियता और शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई — विशेषकर 1971 के चुनाव बाद जब कांग्रेस (इंदिरा) की स्पष्ट जन समर्थक जीत हुई। 


प्रमुख नीतियाँ और उपलब्धियाँ (1966–1975 तक)

इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल के कुछ स्थायी योगदान निम्न रहे:

हरित क्रांति (Green Revolution)

भारत में 1960s–70s में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिये उच्च उपज वाली फसलें, उन्नत बीजे और सिंचाई तकनीक अपनायी गईं — जिसका क्रेडिट उन नीतियों को जाता है जिनका समर्थन इंदिरा के शासन में हुआ। इसके कारण भारत ने खाद्य संकट से राहत पाई और कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता आयी। 

बैंक राष्ट्रीयकरण (1969–1970)

19 जुलाई 1969 को इंदिरा सरकार ने बड़े पैमाने पर बैंक राष्ट्रीयकरण की घोषणा की — इसके पीछे उद्देश्य था बड़े बैंकिंग संसाधनों को सामाजिक और ग्रामीण विकास की दिशा में मोड़ना। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग पहुँच बढ़ी और ख़ासकर छोटे किसानों व लघु उद्योगों तक क्रेडिट पहुँचना आसान हुआ। 

1971 का बांग्लादेश-युद्ध और भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति

1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) की मुक्ति आन्दोलन तीव्र हुआ, तो भारत ने पनाह, सुधार और अंततः सैन्य हस्तक्षेप का मार्ग अपनाया, जिससे दिसंबर 1971 में पाकिस्तान पर निर्णायक विजय हुई और बांग्लादेश का उदय हुआ। इस घटना ने इंदिरा की लोकप्रियता को जन-स्तर पर बढ़ाया और भारत को दक्षिण एशिया में निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित किया। 

सामाजिक कार्यक्रम और 'गरीबी हटाओ' का नारा

इंदिरा सरकार ने सामाजिक कल्याण, गरीबी उन्मूलन और सार्वजनिक व सामाजिक नीतियों पर जोर दिया। 'गरीबी हटाओ' (Garibi Hatao) जैसे नारे और नीतियाँ उनके चुनावी और प्रशासनिक एजेंडे का हिस्सा रहीं; 1975 के बाद Twenty-Point Programme लागू किया गया, जिसका दावा था तेज़ी से गरीबी घटाना और प्रशासनिक सुधार लाना। (इन नीतियों का प्रभाव मिश्रित रहा—कुछ क्षेत्रों में वास्तविक लाभ, किन्तु प्रशासनिक अत्याचारों की आलोचना भी हुई)। 


1972–1975: असंतोष की परतें — आर्थिक और राजनीतिक झटके

1970 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में वैश्विक और राष्ट्रीय आर्थिक दबाव बढ़े—तेज़ मुद्रास्फीति, कृषि-वर्षों की असफलताएँ, तेल संकट (1973) और बेरोज़गारी ने जनसमर्थन पर दबाव डाला। इसके साथ-साथ राजनैतिक विरोध-आंदोलन (Navnirman in Gujarat, Bihar movement by JP) और छात्रों/किसानों का असंतोष वर्ष 1974–75 में संगठित रूप ले गया। ये आंदोलनों ने स्थानीय भ्रष्टाचार और सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यापक समर्थन जुटाया। 

Jayaprakash Narayan (JP) की 'Sampoorna Kranti' ने विपक्षी एकजुटता को जन्म दिया — और छात्र-आंदोलन से राष्ट्रीय राजनीति में परिवर्तन की ज्वाला फैली। इन आंदोलनों का असर यह हुआ कि 1975 तक देश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती चली गयी और सरकार पर तीव्र जनआन्दोलन का दबाव बन गया। 


कानूनी मोड़ — 'राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी' और इलाहाबाद हाई-कोर्ट का फैसला

1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी के प्रतिद्वंद्वी राज नारायण ने चुनावी व्यावहारों पर आपत्ति उठायी और इलाहाबाद हाई-कोर्ट में चुनाव-प्रार्थना दायर कर दी। 12 जून 1975 को न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी की चुनाव-विजय को रद्द कर दिया और उन्हें छह वर्ष के लिये किसी भी चुनाव में भाग लेने से अयोग्य ठहराया। यह फैसला देश के राजनीतिक नक्शे पर तबाही जैसा था — क्योंकि प्रधानमंत्री के संसदीय सदस्यता और नैतिक वैधता पर सवाल खड़े हो गए। 

इंदिरा गांधी ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी; सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक रूप से रोक लगायी पर इंदिरा को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की इजाज़त दी (appeal pending) — इन घटनाओं ने राजनीतिक तापमान को और बढ़ा दिया। 


आपातकाल की घोषणा (25 जून 1975) — वैधानिक आधार और तात्कालिक घटनाक्रम

12 जून इलाहाबाद हाई-कोर्ट के फैसले के बाद राजनीतिक विरोध और प्रदर्शनों का दायरा बढ़ा। उसी माह राजनीतिक दलों और जनांदोलनकर्ताओं द्वारा प्रतिदिन प्रदर्शन होते रहे—Jayaprakash Narayan का आह्वान, तथा विभिन्न क्षेत्रों में असंतोष। इन सभी घटनाओं के बीच इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद से सलाह देकर अनुच्छेद 352 के अंतर्गत 'आंतरिक संकट' (Internal Disturbance) के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने 25 जून 1975 की आधी-रात में आपातकाल की घोषणा कर दी। इस तरह से केंद्रीय कार्यपालिक को विघटनात्मक शक्तियाँ दे दी गयीं—न्यायिक प्रक्रियाएँ, नागरिक स्वतंत्रताएँ और चुनावी प्रक्रिया पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा। 

(नोट: सरकार ने 'Internal Disturbance' का हवाला दिया; बाद में विवाद हुआ कि क्या वास्तव में ऐसा कोई पारंपरिक राष्ट्रीय संकट था या यह राजनीतिक कदम था। Shah Commission ने बाद में निष्कर्ष निकाला कि आपातकाल का निर्णय प्रधानमंत्री द्वारा अकेले लिया गया और औचित्य कमजोर था।) 


आपातकाल के कानूनी-प्रशासनिक कदम और निर्देश

आपातकाल लागू होते ही सरकार ने बहुत सी वैधानिक एवं प्रशासनिक क्रियाएँ कीं:

  • अनुच्छेद 352 के उपयोग से संसद ने नागरिक अधिकारों की कुछ धाराएँ निलंबित कीं (विशेषकर अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति/सभा/संघ की स्वतन्त्रता पर रोक)। 

  • Maintenance of Internal Security Act (MISA) और Defence of India Rules (DIR) का बड़े पैमाने पर उपयोग कर विरोधियों तथा आन्दोलनकारियों को बिना त्वरित मुक़दमे के हिरासत में लिया गया। लगभग लाखों की संख्या में लोग हिरासत में रखे गए — विभिन्न आँकड़े अलग-अलग हैं, पऱन्तु न्यायाधिकरणों/आधिकारिक सर्वे ने लाखों तक रोक-टोक और दर्ज किये गये गिरफ्तारी-आदेश दिखाये। (आंकड़ों के संदर्भ देखें)। 

  • प्रेस और मीडिया पर प्री-सेंसरशिप लागू कर दी गयी; दिल्ली के कई समाचार-कार्यालयों का बिजली-आपूर्ति भी कटवाई गयी ताकि अगले दिन समाचार छप न सके; सरकारी अख़बार चैनलों को नियंत्रण में लिया गया और स्वतंत्र पत्रकारिता पर रोक लगायी गयी। 

इन कदमों का उद्देश्य, सरकार के दावे के अनुसार, 'व्यवस्था बहाल करना' था; पर वास्तविक प्रभाव यह हुआ कि सार्वजनिक विमर्श और लोकतांत्रिक आश्रयों पर गहरा व्यवधान आया। 


आपातकाल के दौरान प्रत्यक्ष नीतिगत/कार्रवाई उदाहरण (अत्याचार व सुधार दोनों)

आपातकाल के भीतर कुछ उपायों को सरकार ने सुधारात्मक बताने की कोशिश की; साथ ही कुछ कार्रवाइयाँ अत्यधिक आलोचित हुईं। नीचे प्रमुख बिंदु दिए जा रहे हैं:

व्यापक गिरफ्तारियाँ और राजनीतिक दमन

Janata-समूह और अनेक स्वतंत्र विचारकों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं को MISA आदि के तहत पकड़ा गया। प्रत्यक्ष संख्या के आँकड़े रिपोर्टों में भिन्न हैं—पर Shah Commission एवं अन्य स्रोतों में व्यापक सूची और मामलों का ब्यौरा उपलब्ध है। 

मीडिया पर सेंसरशिप और सूचना का नियंत्रण

26 जून 1975 से प्रेस पर प्री-सेंसरशिप आरम्भ हुई; प्रमुख अखबारों का प्रकाशन नियंत्रित हुआ और बाहरी संवाद रोका गया। बहुत से संपादकों और पत्रकारों को न केवल डराया-धमकाया गया, बल्कि कुछ गिरफ्तार भी किये गये। यह कदम नागरिकों के सूचना-अधिकार पर प्रत्यक्ष चोट थी। 

'बलवती' परिवार-केंद्रित योजनाएँ: नसबंदी (Sterilization) अभियान

1976 के अंत में, संजय गांधी के प्रभाव एवं युवा कांग्रेस के दबाव में केंद्रित परिवार नियोजन अभियान तेज कर दिया गया। पुरुषों में वासेक्टोमी पर ज़ोर दिया गया—कई सरकारी अनुदेशों, क्वोटाओं और कभी-कभी ज़बरन कराने के आरोप उठे। आँकड़े बताते हैं कि 1976-77 के दौरान लाखों (कई रिपोर्टें 6.2 मिलियन से लेकर 10+ मिलियन तक) लोगों ने नसबंदी करवाई; बाद में शाही आयोग (Shah Commission) और सरकारी दस्तावेज़ों ने इस बाबत कई दुराचारों का खुलासा किया। बहुत से मामलों में बलपूर्वक वा अनुचित तरीक़े से नसबंदी करवाई गयी, परिणामस्वरूप कई स्वास्थ्य समस्याएँ और जन-विरोध पैदा हुआ। 

बेघरियों और 'सफाई' नाम पर नक़्शे-बदलाव (Demolitions)

कई राज्यों में 'अवैध अतिक्रमण' हटाने के नाम पर झुग्गियों और बस्तियों का बलपूर्वक ध्वंस किया गया — अक्सर नोटिस नहीं दी गयी और पुलिस-बलों ने भी भाग लिया। टर्कमैन गेट और दिल्ली-के कुछ हिस्सों में हिंसा व गोलीबारी तक हुई। Shah Commission ने कई ऐसे कृत्यों का उल्लेख किया। 

प्रशासनिक और संवैधानिक फेर-बदल (42nd Amendment)

1976 में 42वें संवैधान्तिक संशोधन के माध्यम से संविधान में बड़े औपचारिक परिवर्तन किये गये — जिनमें संसद की शक्तियों का विस्तार, निचली अदालतों पर प्रभाव, और अनेक बुनियादी अधिकारों पर पाबन्दियाँ शामिल रहीं। इस संशोधन को आपातकालीन दौर का संवैधानिक संकेतक माना गया और बाद की सरकारों ने कुछ प्रावधानों को पलट भी दिया। 


आपातकाल के अंदर आर्थिक/विकास प्रयास — क्या हासिल हुआ?

आपातकाल के समर्थक तर्क देते हैं कि विरोधशील आंदोलन दब जाने से बड़े निर्माण-कार्य, औद्योगिक उत्पादन और कानून-व्यवस्था में 'डिसिप्लिन' आया, जिससे कुछ आर्थिक गतिविधि सुधरी; 20-Point Programme लागू कर गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य भी उजागर किये गये। पर आलोचक कहते हैं कि विकास का यह 'लाभ' तब कारगर हुआ जब नागरिक अधिकार दबे हुए थे — यानी यह एक नैतिक एवं संवैधान्तिक लागत पर उपलब्ध लाभ था। आर्थिक सतर्क-विश्लेषण बताता है कि अस्थायी विकास आँकड़े दिखे पर संरचनात्मक सुधारों की पारदर्शिता और टिकाऊ प्रभाव बहस का विषय है। 


जनता-प्रतिरोध, राजनीतिक परिदृश्य और 1977 का लोकसभा-निर्वाचन

आपातकाल के दौरान होने वाले दमन और बलपूर्वक नीतियों (विशेषतः नसबंदी तथा मीडिया पर नियंत्रण) ने जनता में असंतोष का आवेश जमा कर दिया। इंदिरा गांधी ने जनवरी 1977 में चुनाव घोषित किये और कुछ विपक्षी नेताओं को रिहा भी किया गया। मार्च 1977 के आम चुनाव में जनता-विरोही गठबंधन (Janata Party) ने प्रचंड जीत दर्ज की और कांग्रेस भारी पराजय से गुज़री। इंदिरा गांधी स्वयं भी रेव बरेलि/रायबरेली जैसे कई सीटों पर हार गईं (राज नारायण से हार)। मतदान और परिणाम ने स्पष्ट कर दिया कि आपातकाल के दौरान की नीतियों के खिलाफ जनमत निर्णायक था। 

आपातकाल का औपचारिक अंत 21 मार्च 1977 को स्वीकार किया जाता है — उसी माह में चुनाव सम्पन्न हुए और जनराज सरकार बनी। 


Shah Commission: आपातकाल के बाद की जाँच और निष्कर्ष

Janata सरकार ने 1977-78 में Shah Commission की स्थापना की, जिसे न्यायमूर्ति जे.सी. शाह ने अध्यक्षता की। आयोग ने आपातकाल के दौरान होने वाले कई दुराचारों, अत्याचारों, सरकारी दुरुपयोगों और अधिकारों के हनन की जांच की। आयोग की रिपोर्ट (तीन खण्डों में) में यह निष्कर्ष निकला कि निर्णय-प्रक्रिया में ग़लतियाँ और अत्याचार हुए, तथा कई कर्तव्यों का अनुपालन नहीं किया गया — विशेषकर प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा राजनीतिक दबाव में अनैतिक क्रियाएँ की गयीं। Shah Commission ने कई सरकारी अधिकारियों और नेताओं के नाम लिये और अनुशंसाएँ दीं। 

शाह आयोग की रिपोर्ट ने इतिहासकारों, जनता और विधिक समुदाय को आपातकाल के अध्याय को प्रमाण-आधारित ढंग से पुनःदेखने का अवसर दिया — और कई दलीलों का समर्थन किया कि आपातकाल औचित्यहीन और अत्याचारी था। 


आपातकाल का दीर्घकालिक प्रभाव — संवैधानिक, राजनीतिक और सामाजिक

आपातकाल के प्रभाव कई स्तरों पर दीर्घकालिक रहे:

  • संवैधान्तिक सुधार: 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को बाद में 43वाँ और 44वाँ संशोधन कर के बदला गया — और 1978 के बाद राजनैतिक बहस का केंद्र बना कि संविधान की मूलधार (basic structure) और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए। (Kesavananda Bharati की पृष्ठभूमि और 42nd amendment का संदर्भ समझना ज़रूरी)। 

  • राजनीतिक परिदृश्य: आपातकाल के बाद भारतीय राजनीति में नई पार्टियाँ और गठबंधनों का उदय हुआ — Janata experiment और उसके बाद की राजनीतिक हलचलों ने राज्यों और केंद्र में पार्टी-रचना बदल दी। जनता ने लोकतांत्रिक स्वायत्तता को पुनर्निर्देशित किया। 

  • नागरिक-संवेदना: प्रेस-स्वतंत्रता, मानवाधिकार और प्रशासनिक जवाबदेही पर नई जागरूकता आयी — सामाजिक-सांस्कृतिक स्मृति के रूप में Emergency आज भी 'लोकतंत्र पर हमला' के रूप में याद किया जाता है; साथ ही कुछ लोग तर्क देते हैं कि कठोर कदम कुछ समय के लिये आवश्यक थे — यह बहस आज भी जारी है। Shah Commission, मीडिया रिपोर्टें और शैक्षिक विश्लेषणों ने आपातकाल के दुराग्रहों को लंबी अवधि तक सामने रखा। 


परिणामों का तर्क-विश्लेषण: क्या आपातकाल 'आवश्यक' था या 'दमन'?

इतिहासकारों और पॉलिटिकल वैज्ञानिकों के बीच यह बहस गहन है। समर्थक तर्क देते हैं: देश में आंतरिक अशांति और आर्थिक कठिनाइयाँ थीं; आपातकाल ने परिस्थितियों को नियंत्रित कर कुछ प्रभारी विकास और व्यवस्थित कार्यक्रम लाए। विरोधियों का तर्क है: लोकतंत्र का संघटनिक ढांचा और नागरिक-स्वतंत्रताएँ बलपूर्वक सीमित कर दी गयीं; बहु-सालीन दुराग्रहों और मानवाधिकार उल्लंघनों ने दोष सिद्ध किया। Shah Commission और अनेक स्वतंत्र शोध आपातकाल के दमनकारी पक्ष को पुष्ट करते हैं—विशेषकर जब दुराचार, जबरदस्ती नसबंदी और प्रशासनिक अत्याचारों के तथ्यों की पड़ताल की जाती है। 


आधुनिक संदर्भ में आपातकाल — स्मृति और बहस

1975-77 की घटनाएँ आज भी राजनीतिक बहस का केंद्र हैं। हर साल आपातकाल-संबंधी दिवस (जैसे 'Samvidhan Hatya Diwas') मनाये जाते हैं; सरकारें, मीडिया और शिक्षण संस्थान आपातकाल की नीतियों, मीडिया सेंसरशिप और मानवाधिकार उल्लंघनों पर विचार करते हैं। हाल के वर्षों में आयोगों, सरकारी घोषणाओं और स्मारक जन-उपकरणों के ज़रिये उस अवधि को समझने की कोशिश जारी है। 


निष्कर्ष — एक समग्र मूल्यांकन

इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व द्विविध है—एक ओर वे शक्तिशाली, दूरदर्शी और निर्णायक प्रधानमंत्री थीं जिन्होंने देश के लिए महत्वपूर्ण नीतियाँ लागू कीं; दूसरी ओर उनका 1975-77 का निर्णय (आपातकाल) लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिहाज़ से गंभीर चुनौती था। ऐतिहासिक न्याय इस बात पर निर्भर करता है कि हम किन मानदंडों से आंकें—यदि परिणाम-केन्द्रित विकास को प्राथमिकता दें तो कुछ उपलब्धियाँ उजागर होंगी; पर यदि संवैधानिक नियमन, मानवाधिकार और प्रेस-स्वतंत्रता प्राथमिक हों, तो आपातकाल का अध्याय आलोचना के योग्य है। Shah Commission और स्वतंत्र इतिहास लिखते हैं कि कई दुराचार हुए—और लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने पर जोर दिया जाना चाहिए था। 

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