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भारत एक ऐसा देश है जिसकी सभ्यता और संस्कृति हज़ारों वर्षों पुरानी है। प्राचीन काल से ही भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता था क्योंकि यहाँ प्राकृतिक संसाधन, कृषि उत्पादन, कला, साहित्य और व्यापार अत्यधिक समृद्ध था। यही कारण था कि विभिन्न विदेशी शक्तियाँ समय-समय पर भारत की ओर आकर्षित हुईं।
16वीं–17वीं शताब्दी तक भारत पर मुग़ल साम्राज्य का शासन था। इसी काल में यूरोप से व्यापारी समुद्री मार्ग द्वारा भारत पहुँचे। पुर्तगाली सबसे पहले आए, लेकिन व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में डच, फ्रांसीसी और अंततः अंग्रेज सबसे प्रभावशाली साबित हुए।
इस लेख में मैं इन मुख्य भागों को शामिल करूँगा:
रूपरेखा (Outline)
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भूमिका – भारत में ब्रिटिश आगमन से लेकर राज की स्थापना तक।
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ब्रिटिश शासन की नीतियाँ और प्रभाव – आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शिक्षा, प्रशासन।
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1857 का विद्रोह और उसका प्रभाव।
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राष्ट्रीय चेतना का विकास – कांग्रेस, मुस्लिम लीग, प्रेस, शिक्षा और समाज सुधार।
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महात्मा गांधी और असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आंदोलन।
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द्वितीय विश्व युद्ध का असर और ब्रिटेन की कमज़ोर स्थिति।
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विभाजन की मांग और राजनीतिक गतिरोध।
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भारत छोड़ने की प्रक्रिया – कैबिनेट मिशन, माउंटबेटन योजना, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम।
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स्वतंत्रता और विभाजन के बाद की चुनौतियाँ।
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निष्कर्ष – भारत की स्वतंत्रता का वैश्विक और राष्ट्रीय महत्व।
ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन
1600 ई. में इंग्लैंड की रानी एलिज़ाबेथ ने ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्वी देशों से व्यापार करने का अधिकार पत्र (Charter) दिया। 1608 में कंपनी का पहला जहाज़ सूरत पहुँचा और धीरे-धीरे उसने व्यापारिक ठिकाने (Factory) स्थापित करने शुरू किए।
शुरुआत में उनका उद्देश्य केवल व्यापार था, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने राजनीति और सत्ता में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।
सत्ता की ओर कदम
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1757 की प्लासी की लड़ाई ने कंपनी के लिए बंगाल पर नियंत्रण स्थापित कर दिया।
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1764 की बक्सर की लड़ाई ने उन्हें बिहार और उत्तर भारत में अधिकार दिलाया।
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1765 में उन्हें “दीवानी अधिकार” मिल गए, यानी कर वसूली का अधिकार।
धीरे-धीरे कंपनी ने पूरे भारत पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया। यह केवल व्यापारिक संस्था नहीं रही, बल्कि एक साम्राज्यिक शक्ति बन गई।
ब्रिटिश शासन और उसका प्रभाव
1857 तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पूरा शासन स्थापित कर लिया था। लेकिन उनका शासन भारतीय जनता के लिए शोषणकारी और अत्यंत कठोर था।
आर्थिक शोषण
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भारतीय उद्योग, विशेषकर कपड़ा उद्योग, को नष्ट किया गया ताकि ब्रिटेन के कारखानों के उत्पाद भारत में बिक सकें।
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भारी कर व्यवस्था और भूमि-राजस्व प्रणाली (जैसे जमींदारी व्यवस्था) ने किसानों को दरिद्र बना दिया।
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“नकदी फसलों” (Cash Crops) जैसे नील, कपास, अफीम की खेती को बाध्य किया गया जिससे खाद्यान्न की कमी और अकाल की स्थिति बनी।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
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अंग्रेजों ने पश्चिमी शिक्षा और ईसाई मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा दिया।
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सामाजिक सुधार जैसे सती प्रथा पर प्रतिबंध, विधवा पुनर्विवाह आदि को लागू किया गया, लेकिन भारतीय समाज के एक हिस्से ने इसे सांस्कृतिक हस्तक्षेप माना।
प्रशासनिक व्यवस्था
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अंग्रेजों ने केंद्रीकृत शासन लागू किया।
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रेल, डाक, टेलीग्राफ जैसी आधुनिक सुविधाएँ शुरू कीं, लेकिन इनका उद्देश्य ब्रिटेन के हित साधना अधिक था।
1857 का विद्रोह – पहला स्वतंत्रता संग्राम
1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी जिसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी।
कारण
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सैनिकों के बीच असंतोष (एनफ़ील्ड राइफ़ल की कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग)।
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किसानों पर अत्यधिक कर और शोषण।
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राजाओं और जागीरदारों की संपत्ति और राज्य छीन लेना (“Doctrine of Lapse” नीति)।
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धार्मिक और सामाजिक हस्तक्षेप।
परिणाम
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विद्रोह को अंग्रेजों ने कठोर दमन से दबा दिया, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत को नियंत्रित नहीं रख सकती।
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1858 में कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और ब्रिटिश क्राउन (महारानी विक्टोरिया) ने भारत की सत्ता अपने हाथों में ले ली।
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इस प्रकार भारत सीधे ब्रिटेन का उपनिवेश बन गया और इसे ब्रिटिश राज कहा जाने लगा।
राष्ट्रीय चेतना का विकास
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अपना शासन और कठोर बना दिया। लेकिन उसी दौर में भारत में राष्ट्रीय चेतना का बीजारोपण होने लगा।
भारतीय प्रेस और शिक्षा का योगदान
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राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने भारतीयों को जागरूक किया।
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प्रेस और पत्र-पत्रिकाओं (जैसे अमृत बाजार पत्रिका, हिंदू पैट्रियट, केसरी) ने जनता को आवाज़ दी।
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अंग्रेज़ी शिक्षा के कारण एक नई मध्यमवर्गीय, शिक्षित भारतीय पीढ़ी तैयार हुई जिसने आज़ादी की बात करना शुरू किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। इसके संस्थापक ए. ओ. ह्यूम (एक अंग्रेज) थे, लेकिन उद्देश्य भारतीयों को राजनीतिक चर्चा का मंच देना था।
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शुरू में कांग्रेस की नीति नरमपंथी थी – अंग्रेजों से सुधार और अधिकार की मांग।
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लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस उग्रपंथी बनी और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने लगी।
गांधी युग और स्वतंत्रता संग्राम
20वीं शताब्दी में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा मिली महात्मा गांधी के नेतृत्व से। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और भारत में उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर आंदोलन खड़ा किया।
असहयोग आंदोलन (1920–22)
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जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) ने पूरे देश को झकझोर दिया।
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गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया – विदेशी वस्त्र बहिष्कार, सरकारी नौकरी छोड़ना, कर न देना।
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आंदोलन व्यापक रूप से सफल रहा लेकिन चौरी-चौरा हिंसा के बाद गांधीजी ने इसे स्थगित कर दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34)
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1930 में गांधीजी ने नमक सत्याग्रह किया और 240 मील पैदल चलकर समुद्र से नमक बनाया।
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पूरे देश में अंग्रेजी कानूनों की अवज्ञा की गई।
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यह आंदोलन भारतीयों की एकता का प्रतीक बना।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
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द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से बिना पूछे उसे युद्ध में झोंक दिया।
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गांधीजी ने 8 अगस्त 1942 को “भारत छोड़ो आंदोलन” का नारा दिया – अंग्रेजो भारत छोड़ो!
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लाखों लोग जेल गए, आंदोलन बर्बर दमन का शिकार हुआ, लेकिन अंग्रेजों को यह साफ़ संदेश मिला कि अब भारत पर उनका शासन असंभव है।
द्वितीय विश्व युद्ध और ब्रिटेन की कमजोरी
द्वितीय विश्व युद्ध (1939–45) ब्रिटिश साम्राज्य के लिए घातक साबित हुआ।
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युद्ध में ब्रिटेन आर्थिक रूप से दिवालिया हो गया।
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भारत से संसाधन और सैनिकों का दोहन किया गया।
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युद्ध के बाद ब्रिटेन पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव था कि उपनिवेशों को स्वतंत्रता दी जाए।
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अमेरिका और सोवियत संघ जैसे नए महाशक्तियों ने भी उपनिवेशवाद का विरोध किया।
इसलिए ब्रिटेन समझ गया कि भारत पर शासन जारी रखना अब संभव नहीं है।
विभाजन की मांग और साम्प्रदायिक तनाव
स्वतंत्रता आंदोलन के बीच एक नई समस्या खड़ी हुई – हिन्दू और मुस्लिमों के बीच राजनीतिक मतभेद।
मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग
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1906 में बनी मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के हितों की रक्षा की बात शुरू की।
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1940 के “लाहौर प्रस्ताव” में मोहम्मद अली जिन्ना ने अलग मुसलमान राष्ट्र – पाकिस्तान – की मांग कर दी।
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हिन्दू-मुस्लिम दंगों और मतभेदों ने स्थिति को जटिल बना दिया।
कैबिनेट मिशन और असफल वार्ता
1946 में ब्रिटेन ने भारत में सत्ता हस्तांतरण के लिए कैबिनेट मिशन भेजा।
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इसमें एक संयुक्त भारत की योजना थी लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग में सहमति नहीं बनी।
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अंततः विभाजन अवश्यंभावी हो गया।
स्वतंत्रता और विभाजन
ब्रिटिश सरकार ने अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा। उन्होंने सत्ता हस्तांतरण की योजना तैयार की।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
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15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र बने।
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भारत को जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान को मोहम्मद अली जिन्ना ने नेतृत्व दिया।
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भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बना, जबकि पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र के रूप में उभरा।
विभाजन की त्रासदी
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लाखों लोग विस्थापित हुए।
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सांप्रदायिक हिंसा में लगभग 10 लाख से अधिक लोग मारे गए।
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यह मानव इतिहास के सबसे बड़े पलायनों में से एक था।
ब्रिटिश भारत छोड़ने के कारण
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आर्थिक संकट – ब्रिटेन युद्ध के बाद कंगाल हो चुका था।
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राष्ट्रीय आंदोलन का दबाव – गांधी, नेहरू, पटेल, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने जनजागरण किया।
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अंतर्राष्ट्रीय दबाव – अमेरिका, रूस और संयुक्त राष्ट्र ने उपनिवेशवाद का विरोध किया।
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भीतरी अस्थिरता – हिन्दू-मुस्लिम दंगे और राजनीतिक असहमति।
निष्कर्ष
भारत की स्वतंत्रता एक लंबा संघर्ष था, जिसमें लाखों लोगों का त्याग, बलिदान और संघर्ष शामिल है।
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ब्रिटिश शासन भारत छोड़ने को मजबूर हुआ क्योंकि भारतीय जनता ने संगठित होकर अपनी आज़ादी की मांग की।
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स्वतंत्रता के साथ विभाजन की पीड़ा भी मिली, लेकिन यह भारत के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
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15 अगस्त 1947 को नेहरू ने कहा था – “आधी रात को जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।”

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